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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

ना माँग...

रातें जो तन्हा गुजारी हैं उनका हिसाब, ना माँग!
सोचते ही उमड़ता आँखों में सैलाब, ना माँग!!
रात क्यूँ सोये नहीं ये तो बताओ ज़रा,
दे ना पाऊँगा ऐसी बातों का जवाब, ना माँग!
वो किताब जिसमें शब-ए-गम के किस्से है मेरे,
मुझे बड़ी अजीज़ है वो किताब, ना माँग!
माँगने से तो ना मिलती ये मोहब्बत ज़माने में,
हो जाती है, जिसको होनी हो दस्तियाब, ना माँग!
वफ़ा, वो भी ज़माने से, क्या "कमल" तुम भी.
ये सब पुरानी बातें हैं दिल-ए-बेताब, ना माँग!
(सैलाब=बाढ़, अजीज़=प्रिय, दस्तियाब=उपलब्ध )

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