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बुधवार, 19 सितंबर 2012

***ग़ज़ल***

अब तो उसके भी दिल में तमन्ना जाग उठी !
जितनी इधर थी, उधर भी उतनी ही आग उठी !!
जब से आँखों में बसी है उसकी चाँद सी सूरत,
नींद भी क्या करती बेचारी भाग उठी !
क्या बताऊँ ? कैसी कैसी उठती है तमन्नाएं दिल में,
यूँ समझिये हर वक़्त जैसे मस्ती-ए-फाग उठी !
होने को हो चुकी है उम्र पार चालीस के,
मगर इस दिल में ना हसरत-ए-बैराग उठी !
अजब ही चीज़ है प्यार का एहसास "कमल",
लगता है ज़िन्दगी भी गुनगुनाती राग उठी !
(मस्ती-ए-फाग=फाल्गुन का आनंद, हसरत-ए-बैराग=वैराग्य की इच्छा )

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