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मंगलवार, 18 सितंबर 2012

***ग़ज़ल***

दिल-ए-गरीब को अब दीदार की भीख, दे दे ज़रा !
और मुमकिन हो तो मिलने की कोई तारीख, दे दे ज़रा !!
अपना अफसाना भी शाही अफसानों से कम तो नहीं,
किस्सा-ए-पाक उनको, जो लिखते तवारीख, दे दे ज़रा !
प्यार यूँ करते हैं और यूँ निभाते हैं इसको,
आने वाली नस्ल को, चल, ये भी सीख, दे दे ज़रा !
अब के आओ तो रकीबों के घर के आगे से आना,
बड़े सुकून में है वो, उनको थोड़ी चीख, दे दे ज़रा !
"कमल" की एक ही ख्वाहिश मेरे हाथ में तेरा हाथ रहे,
हाथ ये, जिस में किस्मत रही है दीख, दे दे ज़रा !
(किस्सा-ए-पाक=पवित्र कथा, तवारीख=इतिहास, नस्ल=पीढी, रकीब=दुश्मन, प्रेमिका का दूसरा प्रेमी )

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