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गुरुवार, 8 नवंबर 2012

...चैन मेरा छीन के

जब से बेदर्दी गया वो चैन मेरा छीन के!
ख्वाबों की रातें गयी दिन गये तस्कीन के!!
उलझनों में इश्क की किस क़दर उलझे रहे,
ना ही दुनिया के रहे, ना रहे हम दीन के!
आजू बाजू घूमते थे जो मेरे बन कर के दोस्त,
भेद लेकिन खुल गया साँप थे आस्तीन के!
इस जहाँ ने तो उड़ाया मेरी उल्फत का मज़ाक,
काश दुनिया देख पाती बल मेरे जबीन के!
वक़्त पूरी ज़िन्दगी में वो ही अच्छा था "कमल",
जो गुज़ारा था कभी पहलू में उस हसीन के!
(तस्कीन=आराम, कदर=तरह, दीन=धर्म, बल=सिलवट, जबीन=माथा)

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