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सोमवार, 4 मार्च 2013

कोई भी शिकवा नहीं है कातिब-ए-तकदीर से !
इश्क के अंजाम से और ख्वाब की ताबीर से!!
चाहता हूँ, पर हँसी आती नहीं लबों पे अब,
इस क़दर जकड़ा हुआ हूँ, दर्द की ज़ंजीर से !
दोनों हैं अपनी जगह, तकदीर भी तदबीर भी,
जंग जारी है मगर, तकदीर की तदबीर से !
गर्दिश-ए-अय्याम ने किस तरह लूटा मुझे,
शक्ल मेरी मिलती ना, मेरी ही तस्वीर से!
वक़्त चाहे कैसा हो, ना गिरूँगा मैं "कमल",
अपनी ही नज़रों से और अपने ही जमीर से !
( कातिब-ए-तकदीर=भाग्य-विधाता,ताबीर=स्वप्न-फल, तदबीर=प्रयत्न, गर्दिश-ए-अय्याम=समय-चक्र)

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