फ़ॉलोअर

सोमवार, 11 मार्च 2013

फैसले देखे हैं हमने, अपनी ही तकदीर के!
पायी हैं क्या क्या सजायें, वो भी बे तकसीर के!
कोई माने या ना माने पर लिखा होता जुदा,
नसीब में गरीब के, नसीब में अमीर के!
वक़्त-ए-पीरी में मुझे भी अब तो ये लगने लगा,
एक से होते हैं दिल, तिफ़्ल के और पीर के!
एक ग़ज़ल छपवाने खातिर, अपनी मैं, किताब में,
हाये कितने काटे चक्कर दफ्तर-ए-मुदीर के!
राह -ए-इश्क पर "कमल" चलता रहूँगा उम्र भर,
हौसले तो कम नहीं हैं यारों इस राहगीर के !
(तकसीर=अपराध, वक़्त-ए-पीरी=बुढ़ापा, तिफ़्ल=बच्चा, पीर=बूढ़ा, दफ्तर-ए-मुदीर=संपादक का कार्यालय )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें