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सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

किस्से...

किस्से नहीं है रास दुनिया-ए-अजीब के!
सुनने पड़े हैं ताने अक्सर हबीब के !!
था वादे का वो पक्का और पहुंचा वक़्त पर,
पर मेरे घर ना होकर, घर पर रकीब के!
रातें हैं कटती तन्हा दिन भी गुज़रता खाली,
शब्-औ-रोज़ हो गए गिरफ्त में नसीब के!
खुद ही दिया था उसने अपने निकाह का ख़त,
अरमान यूँ लुटे है देखो गरीब के!
अब बख्त है मुखालिफ तो "कमल" के रिश्तेदार,
सब हो गए हैं दूर जो थे करीब के !
(हबीब=मित्र, रकीब=शत्रु, शब्-ओ-रोज़=रात-दिन, बख्त=भाग्य, मुखालिफ=विपरीत)

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